राधाखंडी शैली, सदैई, बाजूबन्द, गायन जागर की विलक्षण लोक गायिका और नृत्यांगना बचन देई का जन्म टिहरी गढ़वाल जिले के भिलंगना विकास खण्ड के असेना गाँव में 1948 में हुआ था। उनके पिता का नाम मोलूराम था। दोणी गाँव के शिवचरण के साथ 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया था। उन्होंने गायन की शिक्षा पारम्परिक रूप से घर पर ही प्राप्त की। ससुराल आकर उन्होंने अपने गायन को और निखारा तथा धीरे-धीरे गढ़वाल के लोक जीवन में अपनी मधुर आवाज से एक नई पहचान बनाई। उनके गायन की विशिष्ट शैली के कारण ही अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उन्होंने अपनी आवाज का जादू बिखेरा । सांस्कृतिक समारोह में उनके पति शिवचरण भी उनका साथ देते थे जो गढ़वाल के अनेक लोक वाद्यों को बजाने में पारंगत हैं। नरेन्द्र सिंह नेगी भी उनकी गायन शैली से प्रभावित थे।
बेड़ा जाति से सम्बन्ध रखने वाली बचन देई को लोक संगीत विरासत में मिला था। इस जाति के लोग चैत (मार्च-अप्रैल) के महीने हर घर में जाकर लोकगीत गाते और लोकनृत्य करते हैं। धान की रोपाई और उसको काटने के दौरान भी ये लोग लोक गीतों का गायन करते हैं ताकि खेतों में श्रम करने वाले लोगों को थकान और धूप का अहसास न हो। राधाखंडी गायन में पारम्परिक तरीके से राधा-कृष्ण के प्रेम (प्रणय) गीतों को गाया जाता है। टिहरी गढ़वाल के संस्कृतिकर्मी मानते हैं कि राधाखंडी गायन की आखिरी कड़ियों में बचन देई एक थी। अब ऐसे गायकों में उनके पति शिवचरण ही एकमात्र गायक रह गये हैं।
चैती, राधाखंडी, सदैई, बाजूबन्द और जागर गायन में उनके असाधारण ज्ञान को देखते हुए हीं गढ़वाल विश्वविद्यालय ने उन्हें संगीत विभाग का विजिटिंग प्रोफेसर 2006 में नियुक्त किया। प्रदेश सरकार की उपेक्षा के कारण प्रसिद्ध 18 ताली नौबत परम्परा के आखिरी ढोल वादक मौजूदास की भी 3 अक्टूबर 2011 को उचित इलाज के अभाव में देहरादून के दून अस्पताल में मौत हो गई थी। आखिर संस्कति मंत्रालय और उसके कर्ता-धर्ता क्या कर रहे हैं ?
हमारी सरकारें भी इस बारे में अपनी गैर जिम्मेदारी और अमानवीय हरकतों के लिए कुख्यात होती जा रही हैं। इसी कारण 4 नवम्बर 2013 को पारम्परिक राधाखंडी लोकगायन शैली की विशिष्ट गायिका बचन देई ने समुचित इलाज के अभाव में देहरादून में दम तोड़ दिया। वह काफी लम्बे समय से फेफड़ों के संक्रमण से जूझ रही थी।
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