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    कुली बेगार | कुली उतार | कुली बर्दायश

    kulibegar

    ‌कुली बेगार आन्दोलन स्वतन्त्रता पूर्व के मुख्य आन्दोलनों में से एक था जिसमें ‘बेगार’ रूप में सभी गाँवों के निवासियों को बड़े हाकिमों, साहब, कमिश्नर, डिप्टी कमिश्नर आदि के आगमन पर उन्हें ‘बेगार’ रूप में अन्न, दूध, घास आदि उपलब्ध कराने के साथ सामान ढोने के लिए कुली रूप में गाँवों के लोगों का उपयोग किया जाता था। बेगार प्रथा के तीन संघटक थे : कुली बेगार, कुली उतार और कुली बर्दायश। इन तीनों के लिए कुली बेगार संबोधन का ही ज़्यादा प्रयोग हुआ। कुली बेगार का मतलब जबरन श्रम से था बिना पारिश्रमिक दिये। कुली उतार में न्यूनतम मजदूरी देय होती थी, जो कि अधिकतर दी नहीं जाती थी और कुली बर्दायश का मतलब विभिन्न पड़ावों में साहबां, सैनिकां, शिकारियों, सर्वेयरों आरै सैलानियों आदि को दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की सामग्री था। इस प्रथा से ब्राह्मण वर्ग भी अछूता न हा। गोरखों के राज में भी ब्राह्मणों से बेगार ली जाती रही। गोरखा, ब्राह्मणों के लिए कहा करते थे- ब्राह्मणों को खुट पुजन्या, खव्र न पुजन्या।


    बेगार की अवस्थाएँ


    ‌बेगार प्रथा औपनिवेशिक काल में लगभग 105 साल तक रही। इसकी तीन अवस्थाएँ देखी जा सकती हैं। पहली अवस्था नेपाल युद्ध से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व तक जिसमें प्रचलित बेगार प्रथा प्रारम्भ में उदार और फिर अनुदार नीति से चलकर नियमबद्ध हो गयी। दूसरी अवस्था प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से सन् 1885 तक, जिसमें यह प्रथा अपने शोषक स्वरूप की पराकाष्ठा पर पहुँची और तीसरी अवस्था सन् 1885 से 1921 के बाद तक प्रथा खत्म होने तक रही, जिसमें इस प्रथा के विरूद्ध जन आन्दोलन हुआ।


    ‌आन्दोलन के दूसरे दौर में जनता इस कुप्रथा के उन्मूलन के लिये दृढ़प्रतिज्ञ हो गई। अल्मोड़ा अखबार, गढ़वाल समाचार आदि पत्र भी बेगार के विरूद्ध सशक्त रूप में लिखकर जनजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। 1914-15 में बेगार के विरूद्ध अद्भुत सक्रियता आयी। 1916 में अल्मोड़ा में होमरूल लीग की एक शाखा खुली जिसने अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक सक्रियता का लाभ आन्दोलन को दिया। इसके अतिरिक्त इस सदी में सामाजिक परिवर्तन भी हो रहे थे राजनीतिक सक्रियता भी बढ़ रही थी। कुमाऊँ परिषद का पहला अधिवेशन 1817 में डिप्टी कमिश्नर जयदत्त जोशी (अवकाश प्राप्त) के सभापतित्व में अल्मोड़ा में हुआ। इस अवसर पर बद्रीदत्त पाण्डे ने एक कविता पढ़ी जिसकी मुख्य पक्तियाँ थी "राजा वही रहेगें श्रीमान जार्ज पंचम प्रत्येक श्वेतचर्मा राजा न बन सकेगा" जिसमें नौकरशाही का विरोध झलकता है।


    कुमाऊँ परिषद् में की गई बेगार उन्मूलन की प्रतिज्ञा


    ‌इसी बीच 1917 में बीरोंखाल में, 1918 में बेरीनाग में, अक्टूबर 1918 में चमोली व गंगोली में कुलीबेगार न देने संबधी प्रतिरोध हुए। 1919-20 में कुमाऊँ परिषद के अधिवेशनों में बेगार संबधी प्रस्ताव पास होते रहे व चर्चाए होती रहीं। सितम्बर 1920 में अल्मोड़ा जिला की पट्टी कैरारो के सूर्ना गाँव के लोगो ने बेगार देने से इंकार कर दिया। स्थानीय प्रतिनिधियों ने अक्टूबर 1920 की मुरादाबाद की संयुक्त प्रंतीय सभा में बेगार उठा लेने का प्रस्ताव पारित किया। 16 नवम्बर 1920 में गढ़वाल परिषद् में जनता को बताने का निर्णय हुआ कि बेगार कानून विरूद्ध हैं इसे किसी भी हाल में न दिया जाय। कुमाऊँ परिषद् के चौथे 1920 के काशीपुर अधिवेशन में यह प्रतिज्ञा की गई कि अब कुली उतार नही दिया जायेगा व इस कलंक को हटा कर ही दम लिया जायेगा।


    1827 से ही होने लगा था विरोध



    ‌कुली बेगार के विरोध के स्वर छुट-पुट रूप में प्रथम अवस्था के अन्तर्गत भी देखने को मिलते हैं। जिसमें सन् 1827 में काली कुमाऊँ के एक जमीदार ने सैनिक बैरकों के निर्माण हेतु पाथर (स्लेट्स) उपलब्ध कराने से इन्कार कर दिया था। सन् 1830 में लोहाघाट तथा सन् 1832 में पिथाैरागढ़ में माँग के मुताबिक कुली नहीं आये। सन् 1837-38 में अल्मोड़ा तथा लोहाघाट में सैनिक दलों को रसद मिलने में कठिनाई हुई। सन् 1840 में लेफ्टिनेंट गवर्नर के दलबल को मसूरी से अल्मोड़ा यात्रा हेतु पर्याप्त कुली नहीं मिल सके। लोहाघाट के आसपास के ग्रामीणों ने अपने उत्पादों को लोहाघाट छावनी में बेचना ही बन्द कर दिया क्योकि उनसे जबर्रदस्ती बर्दायश वसूली जाती थी। सन् 1850 में जब विशाड़ (पिथौरागढ़) के बेगार मुक्त ग्रामीणों से बेगार ली गयी तो उन्होंने इसका विरोध कर अपने को बेगार मुक्त कराया। सन् 1857 में कुली के उपलब्ध न होने पर कमिश्नर रामजै को जेल में कैद अपराधियों को इस काम में लगाना पड़ा। वैसे ये ज्यादातर व्यक्तिगत आक्रोश थे और अलग-अलग स्थानों तथा समय में यह विरोध दिखा। लेकिन इससे ग्रामीणों की बेगार के प्रति अरूचि अवश्य दिखती है। अगर देखा जाये तो बेगार का सर्वप्रथम विरोध (सामुहिक) कुमाऊँ की जनता द्वारा श्री बद्रीदत्त पाण्डे आदि नेताओं के नेतृत्व में शुरू हुआ। इसमें किसी व्यक्ति पर बेगार न देने पर जुर्माना किया गया।


    इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा किया गया गैर कानूनी घोषित


    ‌बद्रीदत्त जी ने इस जुर्माने के खिलाफ अपील की। कमिश्नर ने जुर्माना बरकरार रखा तब पाण्डे जी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की जिसमें जज ने कुली बेगार को गैर कानूनी घोषित किया। परन्तु इसके बावजूद कुमाऊँ में बेगार प्रथा चलती रही। उस फैसले के आधार पर बहुत बड़ा आन्दोलन छिड़ गया। जिसके फलस्वरूप बागेश्वर में 14 जनवरी सन् 1921 को हरगोविन्द पन्त, बद्रीदत्त पाण्डे और विक्टर मोहन जोशी आदि के नेतृत्व में कुली बेगार के रजिस्टर सरयू को समर्पित कर दिये गये। इस सभा में 10 हजार से अधिक लोगाें ने कुली बेगार न करने का संकल्प लिया। तब सरकारी अधिकारियों ने पौड़ी गढ़वाल जिले की गुजडू पट्टी के साथ सल्ट की चार पट्टियों से बेगार कराने का फैसला लिया। इसकी सूचना हरगोविन्द पन्त को मिली तो वो एस.डी.एम. से पहले सल्ट पहुँच गये, जहाँ विभिन्न स्थानों पर सभाएँ कर उन्होंने जनता से बेगार न देने का संकल्प कराया। बेगार आन्दोलन में प्रारम्भिक भूमिका जनता की रही जिसमें कुछ शीर्ष नेताओं ने नेतृत्व किया। इस समय कुमाऊँ कमिश्नर व्याधम पर्सी था। बेगार आन्दोलन में पत्रकारिता ने पहली बार महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। गढ़वाल में भी कुली बेगार के विरोध में आन्दोलन छिड़ा और पहली बैठक चमेठाखाल में हुई। इसके बाद अप्रलै सन् 1921 में गढ़वाल में आन्दाले न अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया। ऊपरी गढ़वाल में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा तथा दक्षिणी गढ़वाल में केशरसिंह रावत के नेतृत्व में सक्रियता बनी रही। इसके पश्चात सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में कुली बेगार आन्दाले न व्यापक स्तर पर चला और इसके बाद कुली बेगार की प्रथा बन्द हो गयी। गढ़वाल में चल रहे राजनीतिक आन्दोलन की यह पहली विजय थी। इस प्रकार कुली बेगार आन्दोलन ऐसा प्रथम आन्दोलन माना जा सकता है जिसमें कुमाऊँ तथा गढ़वाल के लोगों ने मिलकर अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी और कुली बेगार प्रथा को खत्म करने प्रयास किया।


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