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    रानी कालीनारा

    लोकगाथा के अनुसार इन्द्रपुरी के राजा इन्द्र की दो बेटियाँ थी। दोनों बेटियों में उनकी छोटी बेटी का नाम कालीनारा और लेखिका बड़ी बेटी मसानी था । इन्द्र ने अपनी बड़ी बेटी का विवाह हिमालय की कोख में बसे “रंगीली-बैराठ" के राजकुँवर के साथ कर दिया। उनकी दूसरी बेटी काली नारा बचपन से ही अद्वितीय सुन्दरी थी। उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसका रूप लावण्य भी बढ़ता गया। अपने यौवन काल को प्राप्त होते-होते उसका मन मयूर सांसारिकता की ओर मुड़ने लगा। उसने अपने पूर्वजों से बहुत कहानियाँ सुनी थी। कहानियों का संसार कई बार उसने अपनी बूढ़ी दादी आदि जनों से सीखा था ।(Kalinara Mother of Haru Saim)


    एक बार उसने चर्चा सुनी कि भगवान शिव की पुण्य स्थली हरिद्वार में गंगा जी के पावन तट पर कुम्भ का मेला लगने वाला है। कुम्भ के मेले की चर्चा सुनकर काली नारा कुम्भ के दर्शन के लिए उत्कंठित हो उठी। भारतीय कुमारी लड़की अपनी उत्कंठा को दबाने में ही अपना एवं अपने परिवार का हित पहले सोचती है। जब वह उसे दबा पाने में असमर्थ होती है, तब वह अवश्य ही आश्रय ढूँढने का प्रयास करती है। गहन चिन्तन मनन् के पश्चात आश्रय उसे मिलता है अपनी बहन, भाभी, माँ आदि जनों का।


    कालीनारा अपनी इस अभिलाषा को भाभी के समक्ष रखती है, किन्तु उसकी भाभी उससे कहती है कि इस भरी जवानी में तू अपने इस सौन्दर्य बोझ को लेकर यदि अकेले मेले में जाने की इच्छा रखती है तो निश्चय ही अपना मुँह काला करके आयेगी।" भाभी के इस प्रकार के तीर-समान वचनों को सुनकर वह मन मसोस कर रह जाती है। किन्तु वह अपना साहस नहीं छोड़ती है और अपनी माँ के समक्ष अपनी उत्कंठ इच्छा को व्यक्त कर ही देती है। कहा गया है कि इच्छा बलवान होती है, ईश्वरीय विधान को टाला नहीं जा सकता है। माँ अनिच्छा व्यक्त करती है, किन्तु स्पष्ट रूप से उसे मेला जाने से रोक भी नहीं पाती है। यही हर किसी माँ की ममता होती है। अतः कालीनारा मेले के लिए तैयार होने लगती है।


    कालीनारा की मौन स्वीकृति प्राप्त करने के बाद सजधज कर कुम्भ मेले में जाने के लिए तैयार हो जाती है । वह इन्द्रपुरी से हरिद्वार जाने वाले मार्ग से हरिद्वार के लिए प्रस्थान करती है। हरिद्वार की समतल भूमि में गंगा स्नान करने की उसकी उत्कंठ अभिलाषा उसे निरन्तर मार्ग पर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करती है। किन्तु उसका दुर्भाग्य कि रास्ते में ही उसे मासिक धर्म हो जाता है। राह चलते-चलते वह पूस मास के अन्तिम दिन (मासान्त) हरिद्वार पहुँच जाती है। माघ मास की संक्रान्ति के दिन वह उत्तरायणी के पावन अवसर पर गंगा स्नान का पुण्य अर्जित करने की इच्छा से घर से हरिद्वार को प्रस्थान करती है। मासिक धर्म के कारण उसकी यह अभिलाषा पूर्ण नहीं हो पाती है, किन्तु वह अपनी प्रतिज्ञा से विचलित नहीं होती है। यद्यपि वह अपने भाग्य पर अफसोस करती है फिर भी पांच दिन तक वहीं रुक कर गंगास्नान कर कुम्भ-दर्शन का लाभ अर्जित करना चाहती है। पांचवे दिन कालीनारा गंगा में स्नान करने जाती है ।


    कालीनारा का हृदय गंगा जल के समान पवित्र था । घर से निकलते समय वह अपनी माँ को आश्वस्त कर आती है कि वह मेले में मिलने वाले नवयुवकों को भाई कहकर पुकारेगी, हम उम्र को बड़ा भाई कहेगी, अधेड़, उम्र वालों को चाचा और वृद्धजनों को दादा (बूबू) कहेगी । हरिद्वार में आये हुए सोलह सौ सन्यासियों, चौरासी सौ बैरागियों, नौ सौ सुखनाथों, अट्ठारह सौ सिद्धों और बारह सौ पंथों के दर्शन की उसके मन में तीव्र इच्छा समायी हुई थी। उसे पूर्ण करने आखिरकार वह हरिद्वार पहुँच ही जाती है। किन्तु भाग्य की बिडम्बना उसका पीछा नहीं छोड़ती है।


    गंगा तट पर आकर वह पवित्र गंगा-जल में डुबकी लगाती है। गंगा- माता की एक तेज लहर उसके शरीर का स्पर्श करती है। गंगा की लहरों के स्पर्श-मात्र से कालीनाग को कुछ ऐसा आभास होता है कि उसके साथ कुछ अनहोनी हो गई है। उसे लगता है कि कहीं उसकी भाभी की कही गयी बातें सत्य तो नहीं हो जाती हैं। नारी-हृदय अपने अन्दर होने वाली हलचल को जितनी जल्दी जान लेती है, उतनी जल्दी पुरुष हृदय इसका आभास नहीं कर सकता है। यह गंगा की तेज लहर उसके जीवन का अभिशाप थी या यो कहें कि धरती माता के लिए वरदान। गंगालहर का झोंका कालीनारा के गर्भाशय को छूकर उसके शरीर में एक ऐसी हलचल मचा में देता है कि उसे लगने लगता है कि उसको गर्भ धारण हो गया है।(Kalinara Mother of Haru Saim)


    कालीनारा को क्या पता था कि उसके शरीर में एक ऐसी महान विभूति उतर गयी है। जो समय आने पर इस धरा पर अवतरित होगी। अपनी अद्भुत लीलाओं से धरती माता को मुग्ध कर देगी । गिरिराज की पावन कोख में पैदा हो गये उन अपचारियों का नाश कर देगी । वह तो अपने भाग्य पर रोती है। बिन ब्याही माँ का कलंक उसके माथे पर लगना ही था । वह कुन्ती की तरह ही साहस बटोर कर इस गर्भ की रक्षा करने का मन बना लेती है।


    गंगा में स्नान करते समय गंगा माँ की लहर से गर्भ-गृहण कर कालीनारा हरिद्वार में गर्भावधि व्यतीत करने व रुकने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाती है। इसे नैसर्गिक चेतना का ही अभ्युदय समझना चाहिए कि एक अनचाहे और बिना संसर्ग के उत्पन्न गर्भ को वह स्वीकार कर लेती है। भले ही उसके मन में अपने कुल की मर्यादा का प्रश्न बार-बार उठता है। कालीनारा को हरिद्वार में रहते हुए नौ माह का समय व्यतीत करती है।


    दसवें महीने के प्रारंभ में वह आश्रय की तलाश में हरिद्वार से ऋषिकेश की ओर जाती है। ऋषिकेश पहुँचते ही वह एक अलौकिक अद्वितीय सुन्दर और चक्रवर्ती लक्षणों से युक्त बालक को जन्म देती है। बालक के मुख मंडल पर व्याप्त आभा को देखकर उसे अपार संतोष हुआ और लगा कि उसने जो गर्भ धारण किया था, वह साधारण नहीं अपितु विलक्षण है। वह बालक के मुख मण्डल को बार-बार निहारती है और प्रसव वेदना को जैसे भूल सी जाती है ।


    बालक के जन्म के पांचवें दिन वह परम्परानुसार पंचाला छोड़ने के लिए गंगा-तट पर जाना चाहती है। उसे एकाएक ध्यान आता है कि वह नव-जात शिशु कहाँ और किसके पास छोड़े? वह अपने चारों ओर नजर घुमाती हुई निरीक्षण करती है और उसे एक अलौकिक स्थान ऋषिकेश में दिखाई देता है। जहां एक निर्मल कुटिया के सामने मन्द-मन्द अग्नि प्रज्वलित हो रही है। जाड़े का मौसम होने के कारण चतुर्दिक गहरा कोहरा छाया हुआ है। कालीनारा साहस करके उस कुटिया के पास जाती है, जहाँ पर एक योगी धूनी के सामने आसन रमाये हुए है। वह महान योगी कोई नहीं, बल्कि देवताओं के गुरु "गोरखनाथ" थे। कालीनारा उनके प्रभामण्डल से प्रभावित होकर वह उनके चरणों में करबद्ध प्रार्थना करती है। गुरू गोरखनाथ उसके हृदय की वेदना को समझते हुए बालक को अपने पास छोड़ने की अनुमति दे देते हैं। इस अद्भुत बालक की छवि पर गोरखनाथ भी मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें भी उस बात की अनुभूति होती है कि यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि एक अवतारी बालक है। कालीनारा बालक को एक डलिया पर लिटाकर पंचाला (पाँचवे दिन का स्नान) छोड़ने जाती है। और स्नान हेतु गंगा की ओर प्रस्थान करती है। पाँचवे दिन के बालक हरू को ध्यान आया कि माँ पंचदिन के स्नान को गई है। वहाँ तो सैमनी मसाण का रुतबा है, वह माँ को खा जायेगा। वह डलिया से उतर कर अपनी माँ के पास गया। माँ को कुछ पता नहीं है। वहाँ का दृश्य देकखकर बालक सीधे सैमनी मशान पर टूट पड़ता है। बालक हरू उसे मारकर चुपचाप वापस आकर डलिया में सो जाता है।


    वहाँ दूसरी ओर गुरू गोरखनाथ योग साधना से उठकर देखते हैं और बालक को डलिया में नहीं पाते हैं, उनके मन में विचार आता है कि वह नारी मुझे मांस भक्षी बतायेगी। अब क्या करें। आनन-फानन में बिना सोचे विचारे उन्होंने कुश पकड़ा और पानी छिड़कते हुए एक बालक को तैयार कर दिया। और उसे डलिया में सुला दिया। वहीं बालक हरू भी आकर डलिया में लेट गया। यही दोनों बालक आगे चलकर हरू और सैम नाम से जाने जाते हैं। मध्यकाल में इनके द्वारा किये गये चमत्कारिक कार्यो व अत्याचारियों का दमन किया।


    यहाँ पर एक महिला की सशक्त लोकगाथा/कहानी के माध्यम से आम जन मानस को यह अवगत कराया जा रहा है कि माँ कि ममता ने किस प्रकार से अपने बच्चों का पालन पोषण किया गया और किस प्रकार कठिनाईयों में भी रानी कालीनारा ने अपना साहस नहीं छोड़ा।


    आज माता कालीनारा (रानी कलिका) के दोनों पुत्र पर्वतीय क्षेत्र के हर घरों में कुल देवताओं के नाम से पूजे जाते हैं। इनके द्वारा जनहित में किये कार्यों और कत्यूरी राजाओं के अन्तर्गत अत्याचारियों का दमन किया गया। इन साधु वेशधारियों ने अत्याचार के विरूद्ध अपना धर्म आन्दोलन छेड़ा जिसमें ये सभी लोग सफल हुए। तब ही आज के जनमानस में ये कुल देवता और लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं।




    ● प्रो. दया पंत
    - विभागाध्यक्ष इतिहास (भू.पू.) एस. एस. जे. विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा


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