बीसवीं सदी के तृतीय दशक में पर्वतीय जनता को जागृत करने का कार्य समर्पित और सशक्त रूप से स्वाधीन प्रजा ने किया। स्थानीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी नेता मोहन जोशी ने स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए स्वाधीन प्रजा’ का प्रकाशन किया। मोहन जोशी ने स्वाधीन प्रजा के विज्ञापन में उसके प्रकाशन का उद्देश्य बताते हुए कहा कि :-स्वाधीन प्रजा सच्चे और सही समाचार प्रकाशित करेगी, देश को स्वाधीन बनाने तथा राष्ट्रीय जागरण हेतु जनता को संगठित करेगी, ग्रामों और नगरों में स्वाधीनता के सिद्धान्तों का प्रचार करेगी। औपनिवेशिक स्वराज्य के स्थान पर स्वाधीन प्रजा ने पूर्ण स्वतन्त्रता का समर्थन किया। स्वाधीन प्रजा का मानना था कि कोई भी व्यवस्था उसके संचालक की ईमानदारी पर ही निर्भर करती है। स्वाधीन प्रजा ने स्थानीय प्रशासन तथा सरकार की दमन नीति पर भी कुठाराघात किया। अपने मार्मिक तथा उत्तेजक लेखों एवं सम्पादकियों के कारण स्वाधीन प्रजा शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया।
भगत सिंह को फांसी दिये जाने पर स्वाधीन प्रजा ने सरकार का गुंडापन कहकर आलोचना की। 14 मई, 1930 को क्रान्ति शीर्षक से उग्र सम्पादकीय प्रकाशित किया। इन लेखों एवं सम्पादकियों के कारण 10 मई, 1930 को स्वाधीन प्रजा से छह हजार रूपये की जमानत मांगी गई। यह जमानत अब तक मांगी गयी जमानतों में सबसे अधिक थी। फलतः उन्नीसवां अंक आधा ही प्रकाशित करके, इसका प्रकाशन बन्द कर दिया गया।
अक्टूबर, 1930 में कृष्णानन्द शास्त्री के संपादन में स्वाधीन प्रजा का पुनर्प्रकाशन किया गया। उनके सम्पादन में भी स्वाधीन प्रजा पर्वतीय क्षेत्र में निरन्तर जागृति फैलाता रहा और स्थानीय जनसमुदाय को अधिक से अधिक राष्ट्रीय संग्राम से जोड़ने का कार्य करता रहा। सन् 1932 में स्वाधीन प्रजा बन्द हो गया। इसका कारण मोहन जोशी की मानसिक विक्षिप्त्ता थी। अल्प प्रकाशन काल में स्वाधीन प्रजा पर्वतीय पत्रकारिता जगत में छाया रहा।
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